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शिक्षा व रोजगारDECEPTION DETECTION TECHNIQUE पॉलीग्राफ, नार्को टेस्ट या ब्रेन मैपिंग क्या है?

DECEPTION DETECTION TECHNIQUE पॉलीग्राफ, नार्को टेस्ट या ब्रेन मैपिंग क्या है?

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आपको कभी लगा है की सामने वाला आपसे झूठ बोल रहा है या आपको धोखा दे रहा है, अगर लगा है तो, आपने क्या किया? आमलोग चेहरे के भाव से, नजरों से या उस व्यक्ति के असहजता से सच या झूठ का पता लगा लेते हैं, बच्चे अपने बचाव में झूठ बोलते हैं क्योंकि इसके अलावा उसके पास बचने के कोई उपाय नही होता है, लेकिन उसे झूठ बोलने की कला मालून नही होती है और बच्चों के चोरी बड़ी आसानी से पकड़ी जाती है, लेकिन जब वह वयस्क हो जाता है तो इस कला में पारंगत हो जाता है। कुछ लोग तो बड़ी ही सफाई से झूठ पर झूठ बोलते जाते हैं और कई दफा लोग आराम से उसके बातों का ट्रस्ट कर लेते हैं। लेकिन जब एक सच या झूठ किसी के जीवन और मरण का फैसला करने वाला हो तो मामला थोड़ा सा डरावना हो जाता है ऐसी परिस्थिति में कसम खिला देने से काम नही चलता।

आपने अक्सर किसी क्रिमिनल केस या किसी फिल्म में इस टर्म या शब्द “पॉलीग्राफ”, “नार्को टेस्ट” या “ब्रेन मैपिंग” को अवश्य ही सुना होगा, तब आपके मन में यह ख्याल आता होगा की यह क्या होता है साथ ही इसे जानने की जिज्ञासा भी होती होगी, तो आज इस पोस्ट के माध्यम से इसे समझने का प्रयाश करते हैं कि, पॉलीग्राफ, नार्को टेस्ट या ब्रेन मैपिंग क्या होता है।

इन सभी को समझने से पहले आपको दो टर्म या दो शब्द को समझना होगा पहला शब्द है “आरोपी/अभियुक्त” (ACCUSED) और दूसरा शब्द है “अपराधी/दोषी” (CONVICT)

आरोपी/अभियुक्त उसे कहेंगे जिसपर किसी तरह का आरोप है। उदाहरण के लिए आप हत्या का आरोप, बालात्कार का आरोप या देशद्रोह का आरोप ले सकते है। (नोट: आरोप अभी सिद्ध नही हुआ है)

उसके बाद आता है अपराधी/दोषी : अपराधी/दोषी वह होता है जिसपर आरोप या दोष सिद्ध हो गया है।

अब एक शब्द DDT को भी समझना होगा जिसे पॉलीग्राफ, नार्को टेस्ट या ब्रेन मैपिंग के साथ लिंक करके इसे समझना और आसान हो जाएगा।

DDT का फूल फॉर्म होता है DECEPTION DETECTION TECHNIQUE (डेसेप्शन डिटेक्शन टेक्निक) यानी की धोखे को पहचान लेने की तकनीक, अभी वर्तमान में भारत में धोखे को पहचानने के तीन तरीके हैं :
(1) पॉलीग्राफ (Polygraph)
(2) नार्को टेस्ट (Narco analysis test or Narco test)
(3) ब्रेन मैपिंग ( Brain Mapping)

अब आप थोड़ा-थोड़ा समझ गए होंगे की, किसी आरोपी पर लगाये गए आरोप या अपराध को सिद्ध करने के लिए जिस तकनीक का उपयोग किया जाता है, उसे ही हम DECEPTION DETECTION TECHNIQUE (डेसेप्शन डिटेक्शन टेक्निक) धोखे को पहचान लेने की तकनीक कहते हैं, जिसमें इस तीन तरीके “पॉलीग्राफ” , “नार्को टेस्ट” या “ब्रेन मैपिंग” का उपयोग किया जाता हैं।

अब इसे थोड़ा विस्तार से समझते हैं
(1) पॉलीग्राफ : पॉलीग्राफ के लिए एक शब्द और आता है जिसे कहते है Lie detection technique (लाइ डिटेक्शन टेक्निक) झूठ पकड़ने का तरीका और इसके लिए Lie detector machine का इस्तेमाल किया जाता है जिस मसीन का नाम ही पॉलीग्राफ है।

पॉलीग्राफ टेस्ट Psycho sometic intraction सिद्धांत पर काम करता है। आसान भाषा में समझें तो, कोई ऐसी चीज जो मन में चलती है और उसका असर शरीर पर दिखाई देना शुरू हो जाये, इसी को Psycho sometic intraction का सिद्धांत कहते हैं। 1835-1909 ई० के बीच शेजारे लोम्ब्रोजो इटली के एक अपराधशास्त्री, चिकित्सक और मॉडर्न Crimonolgy के फादर कहे जाते थे, जिन्होंने The Criminal Man नामक एक पुस्तक भी लिखी, जिसमें उन्होंने इस विषय पर विस्तार से बात की है कि, ‘कोई व्यक्ति अपराध क्यों करता है?’, उन्होंने ही सर्वप्रथम एक दस्ताने के रूप में पॉलीग्राफ का प्राथमिक नमूना तैयार किया था, जिसमें आरोपी को दस्ताना पहनाकर उससे अपराध के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न पूछे जाते थे और आरोपी के झूठ बोलने पर रक्तचाप कम होने और सच बोलने पर रक्तचाप का सामान्य रहने पर सच और झूठ का पता लगाया जाता था, हालांकि उनका यह प्रयाश बहुत अधिक प्रमाणिक सिद्ध नही हुआ। बाद में 1915 ई० में अमेरिका के मार्सट्रिन और 1921 में लार्सन ने पॉलीग्राफ के क्षेत्र में काम किया।

आज पॉलीग्राफ का जो रूप हमारे सामने है, इसमें Psycho sometic intraction का सिद्धांत काम करता है। जिसमें इंसान को एक स्पेसिफिक चेयर पर बैठाया जाता है वह चेयर उसके बजन को चौतरफा आकलन करता है। उसके उंगलियों में Electrod लगाए जाते हैं जो इलेक्ट्रिक सिग्नल को रिसिभ करने का काम करता है, झूठ बोलने पर आमतौर पर त्वचा की विद्युत तरंगों की गतिविधि Electrical activity चेंज होने लगती है, अन्यथा यह सामान्य रहती है। आरोपी से अपराध से जुड़े पूछे गए हर सबाल पर इलेक्ट्रिक एक्टिविटी कम्प्यूटर के द्वारा गणना और दर्ज की जाती है। त्वचा के विद्युत गतिविधियों के सामान्य या असमान्य होने से सच या झूठ का पता लग जाता है। पेट पर न्युमोनीक ट्यूब लगाकर सांस की गति की गणना कम्प्यूटर में जोड़कर की जाती है। बाँह पर रक्तचाप मापने के उपकरण BP CUFF लगाया जाता है और उसे भी कम्प्यूटर से जोड़कर आरोपी के रक्तचाप की गणना हर सबाल पर की जाती है। इसके अलावा शरीर के अन्य परिवर्तन जैसे पसीना आना आदि को देखकर और कम्प्यूटर से मिली यांत्रिक जानकारी से उसके झूठ और सच का पता लगाया जाता है। सच बोलने पर ये सभी चीजें सामान्य और झूठ बोलने पर ये सारी चीजें असामान्य हो जाती है।

2010 में रिलीज हुई सन्नी देओल की फ़िल्म “राइट या रोंग” में पॉलीग्राफ का उपयोग सन्नी देओल के ऊपर किया जाता है और सन्नी देओल इस टेस्ट को चकमा देने में कामयाब हो जाते हैं। इस टेस्ट के बारे में कहा जाता है कि अगर किसी व्यक्ति को अपने इन्द्रियों को काबू करने की कला आती हो तो, वह व्यक्ति अपराध करने के बाबजूद इस मशीन को आसानी से धोखा देकर अपने आप को निर्दोष साबित कर सकता है। इसलिए इसकी प्रमाणिकता नार्को टेस्ट से बहुत कम है।

राजीव खण्डेलवाला का एक टीवी शो “सच का सामना” में भी इस मशीन का उपयोग जनसाधारण पर करके उसके झूठ को पकड़ने की कोशिश की जाती थी। इस टीवी शो में जो भाग लेते थे उसका पॉलीग्राफ टेस्ट करके उसके पर्सनल लाइफ से जुड़े कुछ सबाल पूछे जाते थे और उसके सच और झूठ की पहचान की जाती थी।

(2)नार्को टेस्ट क्या है?

नार्को टेस्ट में आरोपी को सन्तुलित मात्रा में सोडियम पेंटोथल या एनेस्थीसिया का इंजेक्शन दिया जाता है। (नोट : एनेस्थीसिया एक दवा है, जिसका इस्तेमाल सर्जरी या मेडिकल प्रक्रिया के दौरान मरीज़ को दर्द न हो, इसके लिए किया जाता है। एनेस्थीसिया शब्द दो ग्रीक शब्दों से मिलकर बना है: “an” यानी “बिना” और “aethesis” यानी “संवेदना” मतलब की बिना संवेदना का।)
इसीलिए सोडियम पेंटोथल को Truth serum भी कहा जाता है। नार्को टेस्ट में आरोपी को सोडियम पेंटोथल का इंजेक्शन लगाया जाता है जिसके बाद आरोपी एक खास अवस्था Hypnotic state या Sedetive state (सम्मोहित अवस्था) में चला जाता है जिस अवस्था में आरोपी का Imagination ability (कल्पना शक्ति), Activity (कार्यशीलता), Analyse ability (विश्लेषण क्षमता) क्षीण हो जाती है किन्तु आरोपी की मेमोरी यानी स्मृति जागृत अवस्था में रहती है।

अब इस अवस्था में आरोपी से अपराध से जुड़े सवाल पूछे जाते हैं, चुकी आरोपी की कल्पना शक्ति, कार्यशीलता, विश्लेषण क्षमता क्षीण रहती है, इसलिए आरोपी बिना तर्क किये, बिना विश्लेषण किये सभी बातों का बिलकुल सही जबाब दे देता है।

2002 के गुजरात के गोधरा कांड के आरोपियों पर नार्को टेस्ट किया गया था, आरुषि तलवार हत्याकांड में आरुषि के पिता के तीन स्टाफ पर इस टेस्ट को किया गया था। जिसमें कृष्णा नामक आरोपी का टेस्ट का वीडियो लीक भी हो गया था। इसी कांड पर 2015 में अंग्रेजी में “Guilty” और हिंदी में “तलवार” नाम से फ़िल्म भी आई थी, जिसमें इस टेस्ट को करते हुए फिल्माया भी गया है। 1980-90 के आसपास करोड़ों के स्टैंप पेपर घोटाले के अभियुक्त अब्दुल करीम तेलगी (वर्तमान में जीवित नही हैं) नामक व्यक्ति पर भी नार्को टेस्ट किया गया था, उस टेस्ट में कथित रूप से तेलगी ने केंद्रीय मंत्री शरद पवार, महाराष्ट्र के मंत्री छगन भुजबल और कर्नाटक के पूर्व मंत्री रोशन बेग को इस मामले में शामिल’ बताया था। 26/11/2008 को ताज़ होटल मुंबई पर वीभत्स हमला करने वाला पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब पर भी नार्को टेस्ट किया गया था। अतः नार्को टेस्ट से अपराधियों का बचना लगभग नामुमकिन है, इसलिए इस टेस्ट की प्रमाणिकता सर्वाधिक है, किन्तु सोडियम पेंटोथल या एनेस्थीसिया के असन्तुलित मात्रा से आरोपी के जान जाने का खतरा रहता है।

ब्रेन मैपिंग क्या है?
ब्रेन मैपिंग को (DECEPTION DETECTION TECHNIQUE) धोखे को पहचान लेने की तकनीक का सर्वाधिक प्रमाणिक और सुरक्षित तरीका माना जाता है। भारत पूरी दुनिया का पहला और इकलौता ऐसा देश है जो 2008 ब्रेन मैपिंग के आधार पर एक व्यक्ति को उम्रकैद की सजा दे चुका है। हालांकि 2010 में इस फैसले को बदल दिया गया।

दरअसल ब्रेन मैपिंग ECG : Electrocardiography और EEG : Electroencephalography के तकनीक पर काम करता है

ECG : Electrocardiography एक सरल और दर्द रहित परीक्षण है, यह हृदय की विद्युत गतिविधि और लय की जांच करता है, ईसीजी से हृदय की धड़कन की गति, लय, और हृदय के विभिन्न हिस्सों से गुज़रने वाले विद्युत आवेगों का समय पता चलता है।

EEG : Electroencephalography मस्तिष्क के कार्य का परीक्षण करता है। यह मस्तिष्क की विद्युत गतिविधि को मापने का एक टेस्ट है, यह एक दर्दरहित परीक्षण है, इस टेस्ट में, मस्तिष्क से उत्पन्न होने वाले विद्युत संकेतों को रिकॉर्ड किया जाता है, इन संकेतों को एक मशीन रिकॉर्ड करती है। EEG का पहला प्रयोग 1875 में रिचर्ड कैटन द्वारा जानवरों पर की गई थी, जर्मन मनोचिकित्सक हैंस बर्जर ने 1924 में मनुष्यों का EEG करने का बीड़ा उठाया। उस समय तक EEG मानव मस्तिष्क से उत्पन्न होने वाली विद्युत गतिविधि को रिकॉर्ड करने के लिए एक इलेक्ट्रोफिजियोलॉजिकल तकनीक था। बाद में EEG संदिग्ध दौरे, मिर्गी और असामान्य दौरों वाले रोगियों के मूल्यांकन के लिए विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध हुआ।

1965 ई० में एक वैज्ञानिक ने EEG : Electroencephalography को BEAP : Brain electrical activation profile टेस्ट के रूप में परिवर्तन कर अपराध को समझने का पहला प्रयोग किया। इन्होंने इस प्रयोग के माध्यम से P300 नामक एक तरंग के बारे में बताया, जो हमारे मस्तिष्क में हमारे स्मृति के किसी घटना से जुड़े होने का संकेत देता है। जब हमारा मस्तिष्क शांत अवस्था में हो और ज्यों ही हमारे सामने कोई ऐसी बात की जाय जो हमारे पुर्वस्मृति से जुड़ी हुई हो तो हमारे मस्तिष्क में P300 तरंग उत्पन्न होता है और इस प्रयोग ने DECEPTION DETECTION TECHNIQUE की दिशा में एक नई क्रान्ति साबित हुई। लेकिन इसमें भी आंशिक दोष थे, क्योंकि किसी अपराध से जुड़े सबाल के बाद जो P300 तरंग मानव के मस्तिष्क में उत्पन्न तो होते थे लेकिन इससे यह पता लगा पाना मुश्किल था कि वह व्यक्ति की उस अपराध में संलिप्तता थी या उसने केवल उस अपराध के बारे में टीवी न्यूज में सुना या किसी समाचार पत्र में पढ़ा, या फिर उस अपराध का वह प्रत्यक्षदर्शी मात्र था। फिर मामला यहाँ फस गया।

लेकिन उसके बाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेस बैंगलोर के न्यूरोसाइंटिस्ट, नैदानिक ​​मनोविज्ञान के पूर्व प्रोफेसर व प्रमुख चंपदी रमन मुकुंदन (C.R MUKUNDAN) ने BEOS : Brain Electrical Oscillation Signature पद्धति विकसित किया, जिसमें उन्होंने
बताया कि अगर किसी व्यक्ति ने अपराध किया और उससे उस अपराध से जुड़े सवाल पूछे जाएंगे तो उस व्यक्ति के मस्तिष्क में P300 तरंग का जो ग्राफ पैटर्न बनेगा वह ग्राफ उस व्यक्ति के P300 तरंग के ग्राफ के पैटर्न से बिल्कुल भिन्न होगा जो व्यक्ति उस अपराध के बारे में उसने केवल कहीं सुना या कही पढ़ा, या फिर उस अपराध का वह प्रत्यक्षदर्शी मात्र था। अब मामला साफ हो गया। अब आरोपी (Accused) पकड़ना बहुत ही आसान हो गया और इसकी प्रमाणिकता इस क्षेत्र में सबसे अधिक मानी जाने लगी।

लेकिन 2000 ई० में NHRC : NAITION HUMEN RIGHT COMMISSION ने कहा था कि, बिना आरोपी के सहमति या अनुमति के उसका पॉलीग्राफ या इस तरह का कोई भी टेस्ट नही किया जा सकता। लेकिन 2008 में गुजरात के जूनागढ़ सेसन कोर्ट ने संतोख बेन जडेजा (संतोखबेन जडेजा गुजरात की एक अपराधी और राजनीतिज्ञ थीं, उन्हें गॉडमदर के नाम से जाना जाता था। उनका कार्यक्षेत्र गांधी जी के जन्मस्थली के पोरबंदर के आस-पास था) के मामले में ब्रेन मैपिंग टेस्ट का फैसला सुनाया और 15 दिनों का समय देते हुए जूनागढ़ सेसन कोर्ट ने कहा कि आपकी ब्रेन मैपिंग टेस्ट की जाएगी, आप चाहे तो इस फैसले के खिलाफ हाइकोर्ट में अपील कर सकते हैं। संतोखबेन गुजरात हाइकोर्ट गई, लेकिन हाइकोर्ट ने भी कहा की सेसन कोर्ट का फैसला सही है आप चाहे तो सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते हैं। संतोखबेन सुप्रीम कोर्ट गई और सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में इस मामले में एक फैसला सुनाया और कहा कि बिना आरोपी के अनुमति के उसका पॉलीग्राफ या इस तरह का कोई भी टेस्ट नही किया जा सकता। जिसको “सेल्वी” का फैसला कहा जाता है। इस तरह संतोखबेन का ब्रेन मैपिंग टेस्ट नही हुआ।

सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा था कि किसी भी व्यक्ति को जबरन पॉलीग्राफ़ या नार्को परीक्षण के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, यह आदेश, आपराधिक मामलों की जांच के अलावा किसी भी स्थिति में लागू होता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि किसी भी व्यक्ति की सहमति के बिना उसे इस तरह के परीक्षण के लिए मजबूर करना उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता में दखल देने जैसा है।

लेकिन महाराष्ट्र सरकार इससे आगे निकल गई पुणे का मामला था जिसमें बॉमबे हाई कोर्ट ने 2008 में ब्रेन मैपिंग टेस्ट के आधार पर दुनियाँ में पहली बार किसी आरोपी को सजा दी, मामला प्यार मोहब्बत से जुड़ा हुआ था जिसमें अदिति शर्मा नाम की एक लड़की को एक लड़का उदित भारती से प्यार हो जाता है, उसकी शादी तक तय कर दी जाती है लेकिन बाद में कोई तीसरे लड़के की एंट्री हो जाती है और लड़की अपनी पहले फियांसे उदित भारती की खाने में आर्सेनिक नामक जहर देकर हत्या कर देती है। केस होता है, जब केस के इन्वेस्टिगेशन में कुछ स्पष्ट नही हो पता है तो, बॉमबे हाइकोर्ट के द्वारा BEOS (Brain Electrical Oscillation Signature) कराने का आदेश दिया जाता है और BEOS के रिपोर्ट से यह साबित हो जाता है कि, उदित भारती की हत्या अदिति शर्मा ने ही की और बॉमबे हाइकोर्ट के न्यायाधीश शालिनी फनसालकर जोशी ने 9 पन्नों में केवल इस बात को लिखा की अदालत ने BEOS को किस आधार पर प्राथमिक साक्ष्य माना, उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई, दुनियां भर में यह पहला और इकलौता केस था जिसमें प्राथमिक रूप से ब्रेन मैपिंग टेस्ट को साक्ष्य मानकर सजा सुनाई गई थी। हालांकि 2010 में जब सुप्रीम कोर्ट का संतोखबेन के SELVI का फैसला आया तो इस मामले में भी ब्रेन मैपिंग के साक्ष्य को गलत मान लिया गया और कहा गया कि, बिना आरोपी के अनुमति के उसका पॉलीग्राफ या इस तरह का कोई भी टेस्ट नही किया जा सकता।

इस मामले में सवाल उठते हैं, क्या DECEPTION DETECTION TECHNIQUE (पॉलीग्राफ, नार्को टेस्ट या ब्रेन मैपिंग) को अनिवार्य कर दिया जाय?

आपकी क्या राय है?

कुछ लोग यह मानते हैं की इसे अनिवार्य कर दिया जाय ताकि अदालतों के समय बचेगा, दोषी को जल्दी सजा और पीड़ित को न्याय मिल जाएगी।

कुछ लोग मानते हैं कि केवल जघन्य अपराध जैसे हत्या, बलात्कार, देशद्रोह जे मामले में ही इसे अनिवार्य किया जाय।

अब सवाल उठता है कि, ब्रेन मैपिंग के लिए किसी आरोपी की अनुमति क्यों चाहिए, तो चलिए इसके लीगल टर्म को भी समझने का प्रयाश करते हैं :

भारत का वर्तमान कानून यह कहता है की बिना आरोपी के अनुमति के उसका पॉलीग्राफ या इस तरह का कोई भी टेस्ट नही किया जा सकता। दरअसल भारत की जो न्यायप्रणाली है यह Axiom (जिसका मतलब होता है एक सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत सिद्धांत) के आधार पर काम करती है।

एक यहूदी दार्शनिक मोसेज मेमोनाइड्स ने कहा था की “हजार अपराधी बेशक छूट जाए किन्तु एक भी निर्दोष व्यक्ति को सजा नही मिलनी चाहिए।” और इसी दर्शन के आधार पर कुछ-कुछ भारतीय संविधान या न्यायपालिका भी काम करती है। लेकिन इसका दोष भी है, भारत के इसी न्याय प्रणाली का फायदा उठाकर कुछ असली अपराधी भी छूट जाते हैं।

लेकिन न्यायसंगत तो यह होगा कोई कोई अपराधी छूटे नही और कोई भी निर्दोष को सजा न मिले, लेकिन यह इतना आसान न तो पुलिस के लिए है और न हो न्यायालय के लिए है, क्योंकि हर व्यक्ति का अपना-अपना अलग रक्षात्मक तंत्र है। बच्चे झूठ बोलकर अपने आप को बचाते हैं, बड़े कसम खाकर अपने आपको सही साबित करते हैं और अपराधी तो पॉलीग्राफ को भी चकमा दे देते हैं। अतः हमारी अदालतें पहले से यह पूर्वमान्यता (Presumption) बनाकर काम करती है कि, आरोपी पर आरोप झूठे हैं और इसी पूर्वमान्यता पर न्यायालय किसी केस में आगे बढ़ती है की, जिसके खिलाफ शिकायत है वह बेकसूर है जबतक की आरोपी पर आरोप सिद्ध ना हो जाये।
इससे शिकायतकर्ता को आरोपी पर आरोप सिद्ध करने पड़ते हैं और कई बार आरोप सिद्ध नही होने पर आरोपी अपराधी होते हुए भी छूट जाते हैं और पीड़ित को न्याय नही मिल पाता है। हाँ इस सिद्धांत से यह फायदा जरूर होता है कि, इससे हजारों निर्दोष बेवजह सजा पाने से बच भी जाते हैं। क्योंकि पुलिस जब साबित करने पर उतर जाए तो किसी को भी दोषी सिद्ध कर सकती है।

हमारे संविधान के आर्टिकल 20 के तीसरे क्लाउज में साफ लिखा है कि, किसी आरोपी को स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए मजबूर या बाध्य नही किया जा सकता है।

CR.P.C : CRIMINAL PROSIDURE CODE यह बताती है कि आपराधिक मामले में अदालत की कार्यवाही कैसे आगे बढ़ेगी या कैसे चलेगी। CRPC के सेक्सन 161 और सेक्सन 164 है।

सेक्सन 161 के तहत पुलिस कस्टडी में किसी आरोपी से बयान लिया जाता है और सेक्सन 164 के तहत न्यायालय में मजिस्ट्रेट के समक्ष आरोपी का बयान लिया जाता है।

यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है की सेक्सन 161 की गवाही की कोई वैल्यू नही होती है अगर पुलिस आपसे कस्टडी में कोई बयान लेना चाहे तो बड़े ही आराम से अपना बयान दे दीजिए क्योंकि उस गवाही या बयान को अदालत साक्ष्य के रूप में कोई मान्यता नही देती है। हाँ आप पुलिसिया टॉर्चर या 3rd डिग्री से बच जरूर जाएंगे।

लेकिन जब 164 का बयान मजिस्ट्रेट के सामने अदालत में होती है तो उसकी मान्यता सर्वोपरी होता है और यह आरोपी के लिए सजा तय करता है, इसलिए मजिस्ट्रेट आरोपी से बयान लेते समय कहता है कि देखिये आपको दोष स्वीकार (Confession) करने की जरूरत नही है, जब तक की आपका मन ना चाहे, हमारी तरफ से दोष स्वीकार (Confession) कर लेने का किसी तरह का दबाव आप पर नही है। भारतीय कानून व्यवस्था के तहत आप दोष स्वीकार करने के लिए मजबूर नही है। लेकिन फिर भी आप मेरे सामने दोष को स्वीकार (Confession) करेंगे तो यह आपके खिलाफ एक सबूत बन जायेगा, जिसके तहत आपको सजा हो सकती है। उसके बाद मजिस्ट्रेट सेक्सन 164 के तहत आरोपी से गवाही लेता है और उसे लिखता है। गवाही पूर्ण होने के बाद मजिस्ट्रेट उसे पढ़कर आरोपी को सुनाता है और पूछता है कि आपने यह गवाही अपने पूरे होश-ओ हवास में दी है क्या यह ठीक है, जब आरोपी कहता है की हाँ ठीक है, तब उस गवाही दस्तावेज पर आरोपी और मजिस्ट्रेट का दस्तखत होता है। उस दस्तावेज के नीचे एक पैराग्राफ में मजिस्ट्रेट को यह लिखना पड़ता है की “आरोपी को सारे नियम समझा दिए गए थे और मुझे पूरा विश्वास है कि आरोपी ने दबाव में आकर यह बयान नही दिया है”।

अब एकबार फिर CRPC के सेक्सन 161 को विस्तार से समझते है, CRPC के सेक्सन 161 में किसी केस के इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर (जाँच अधिकारी) (I.O ) को यह अधिकार होता है कि, वह किसी को भी शक के आधार पर पूछताछ के लिए बुला सकता है और उस अपराध से जुड़े सवाल पूछ सकता है। जबकि CRPC के सेक्सन 161 (2) में लिखा है कि, किसी केस का (I.O) इन्वेस्टिगेशन ऑफिसर किसी व्यक्ति से कोई भी सवाल उस बुलाये गए व्यक्ति या खुद आरोपी से पूछ सकता है और उस व्यक्ति को उस सवाल का जबाव देना होगा। (लेकिन बुलाये गए व्यक्ति या आरोपी को जब लगे के इस सवाल का जबाव देने से वह स्वयं अपराधी सिद्ध हो सकता है तो उस समय वह व्यक्ति या आरोपी मौन रह सकता है या कह सकता है कि मैं इस सवाल का जबाव नही दे सकता और कह सकता है की संविधान के आर्टिकल 20(3) और CRPC के सेक्सन 161 (2) के तहत आप इसके लिए मुझे बाध्य नही कर सकते।)

ओडिसा की मुख्यमंत्री नंदनी सतपथी 1978 में जब इमरजेंसी के समय गिरफ्तार हुई थी तो पलिस कस्टडी में उनसे जब सवाल पूछे गए तो उन्होने पुलिस से यह कहा की आपका हर एक सवाल ऐसा है जिसका जबाब देने से मेरे स्वयं पर आरोप सिद्ध हो जाएंगे इसलिए संविधान के आर्टिक्ल 20(3) के तहत आप किसी को भी स्वयं विरुद्ध गवाही देने के लिए मजबूर या बाध्य नही कर सकते और CRPC के 161 (2) के तहत आप हमें ऐसे सवालों का जबाब देने के लिए बाध्य नही कर सकते, जिसका जबाव देने से मेरे स्वयं पर आरोप सिद्ध हो जाये। मामला सुप्रीम कोर्ट गया और सुप्रीम कोर्ट भी ओडिसा की मुख्यमंत्री नंदनी सतपथी के पक्ष को सही ठहराया और कहा कि, संविधान के तहत मौन रहने का अधिकार (RIGHT TO SILENCE) यह इनका मूल अधिकार है और भारत के किसी भी नागरिक को उसके मूल अधिकार से किसी भी परिस्थिति में वंचित नही किया जा सकता।

इस तरह के संवैधानिक अधिकार से किसी भी आरोपी के अधिकार तो बढ़ते ही है साथ ही साथ पुलिस की जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। इन्ही सभी बातों के मद्देनजर आज भारत में ही नही पूरी दुनीयाँ में DECEPTION DETECTION TECHNIQUE को अनिवार्य करने की बात चल रही है। जबकि भारत का वर्तमान कानून कहता है कि, बिना आरोपी के अनुमति के उसका पॉलीग्राफ या इस तरह का कोई भी टेस्ट नही किया जा सकता, हाँ अगर वह व्यक्ति इस टेस्ट के लिए अपनी सहमति या अनुमति दे भी देता है तो यह टेस्ट किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष ही सम्पन्न होगा।

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