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शिक्षा व रोजगारआरक्षण : क्या और क्यों?

आरक्षण : क्या और क्यों?

शिक्षा व रोजगार : दरअसल आरक्षण एक विवादास्पद विषय है और आरक्षण पर बात करना तलवार के धार पर चलने के बराबर है, चुकी, आरक्षण के बहुत सारे पहलू हैं, एक मामले में ये ठीक है, एक मामले में ठीक नही है, एक व्यक्ति इसे पसंद करता है जबकि दूसरा व्यक्ति इसे पसन्द नही करता है। कुछ व्यक्ति आरक्षण के एक ध्रुव पर खड़े होते हैं कुछ व्यक्ति आरक्षण के दूसरे ध्रुव पर खरे हैं, जबकि मेरा व्यक्तिगत विचार है कि, आरक्षण एक जरूरी समाजिक व्यवस्था है, जो समाज के विकास के लिए आवश्यक है।

इसे लेकर क्यों तनी रहती है तलवारें?
दरअसल हमारे देश में संसाधन (मनुष्य की मूल जरूरत) सीमित है और जब किसी देश में संसाधन सीमित हो और संसाधन के समान वितरण की बात हो तो इसमें जबदस्त मतभेद होना स्वाभाविक है। जब किसी के हाथ से संसाधन निकलता महसूस होता है, इसके विपरीत जब किसी के हाथ में कुछ आता हुआ दिखता है तो, उस समय दोनों के ही सुविचार, तर्क और नैतिक मूल्य डगमगाने लगता है, उस समय मनुष्य का निजी हित उसपर हावी हो जाता है और उसके पक्ष में किसी भी हद तक जाने को तैयार हो जाता है। आरक्षण के मुद्दे पर भी लोगों की मानसिक स्थिति कुछ इसी तरह की हो जाती है। यही मूल वजह है कि, आरक्षण के दो मत या दो वर्ग हैं, एक वर्ग वो जिन्हें आरक्षण मिलता है, दूसरा वर्ग वो जिन्हें आरक्षण नही मिलता है। जिन्हें आरक्षण मिलता है उस समाज के लोगों को उसके समाज द्वारा आरक्षण के पक्ष में बहुत सारी बातें और तर्क बताई जाती है, जैसे- हमारा वर्षों से शोषण होता आया है और आज जब सरकार हमें ऊपर उठने का अवसर दे रही है तो, कुछ लोग उसे छीनना चाहते हैं। जबकि दूसरी तरफ जिन्हें आरक्षण नही मिलता है उस समाज के लोगों को उसके समाज द्वारा आरक्षण के विरोध में बहुत सारी बाते बताई जाती है, जैसे- आरक्षण अयोग्य लोगों को मिलता है और जब आरक्षण के बल पर देश का संसाधन अयोग्य लोगों के हाथ लग जाये तो, उसका सही उपयोग नही हो पायेगा।

इसतरह, तथ्य और तर्क पर विचार किये बिना ही, दोनों वर्ग के लोग, एक दसरे का ध्रुवविरोधी बनकर इस मुद्रा में रहते हैं कि, अगर दूसरा पक्ष मेरे विरोध में बोलेगा तो हमें तुरंत ही उसपर मौखिक और शारीरिक रूप से हमला करना है। जब किसी एक मुद्दे पर लोगों के मन में, इतने विरोधाभासी मत हो तो, उस मुद्दे पर कायदे से और स्वस्थ संवाद कैसे संभव है?

मनोवैज्ञानिक में एक टर्म है Confirmation Bias “पुष्टिकरण पूर्वाग्रह” जिसका मतलब होता है कि, कोई व्यक्ति, अपनी पहले से मौजूद मान्यताओं या मूल्यों के साथ मेल खाती जानकारी को ही पसंद करता है और विपरीत जानकारी को नज़रअंदाज़ कर देता है, इसे मायसाइड पूर्वाग्रह या अनुकूलता पूर्वाग्रह भी कहा जाता है। उदाहरण स्वरूप किसी हिन्दू परिवार या समाज में यह मान्यता होना की मुश्लिम हिन्दू विरोधी होते हैं, या किसी मुस्लिम परिवार या समाज में यह मान्यता की, हिन्दू हमारे विरोधी हैं – ये Confirmation Bias “पुष्टिकरण पूर्वाग्रह” है।

आरक्षण को लेकर भी आरक्षण के समर्थक और विरोधी के मन में Confirmation Bias “पुष्टिकरण पूर्वाग्रह” वाली स्थिति होती है। यही Confirmation Bias (पुष्टिकरण पूर्वाग्रह) ही कारण है कि, हमलोग इस मुद्दे पर स्वस्थ बातचीत या कायदे की चर्चा नही कर पाते हैं। कभी कभी तो Confirmation Bias हमारे भीतर इतने स्ट्रोंग हो जाते हैं कि, हम दूसरे पक्ष को सुनते ही नही हैं या सुनना पसंद ही नही करते। उस स्थिति को मनोविज्ञान की भाषा में सेलेक्टिव अवॉइडेंस कहते हैं, लेकिन हमारी सोच बद से बदतर तब हो जाती है जब हम Biased Assimilation “पक्षपातपूर्ण आत्मसातीकरण” के स्तर पर चले जाते हैं, यहाँ आने के बाद तो, हम किसी के तर्कपूर्ण, तथ्यात्मक बात को भी स्वीकार नही कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में हमारे विचारों को बदलना लगभग नामुनकिन हो जाता है, हम नए विचार को सीखने या स्वीकार करने की स्थिति में ही नही रह जाते हैं। अगर आप ऐसे विचारों से प्रेरित हैं तो आपको इससे निकलने की आवश्यकता है। आप आरक्षण के समर्थक या विरोधी बनकर आरक्षण को समझना चाहेंगे तो यह कदापि सम्भव नही है आरक्षण को समझने के लिए आपको इसके प्रति निष्पक्ष होना पड़ेगा। आप साइंटिफिक होकर यह भूल जाएं की आप क्या हैं, तभी आप आरक्षण को सही मायने में समझ पाएंगे।

जॉन रॉल्स जो एक अमेरिकी राजनीतिक विचारक थे उन्होंने 1971 में न्याय के सिद्धांत पर एक किताब लिखी, जिसका नाम है “अ थिअरी ऑफ़ जस्टिस” जिसमें उन्होंने न्यायपूर्ण समाज के लिए एक राजनीतिक और नैतिक दार्शनिक सिद्धांत दिया, यह सिद्धांत, समाज में बुनियादी स्वतंत्रताओं को बढ़ावा देता है और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को नियंत्रित करता है। जॉन रॉल्स का न्याय सिद्धांत, समाज में सबसे कम सुविधा पाने वाले लोगों को प्राथमिक सामाजिक वस्तुएं देने पर ज़ोर देता है। रॉल्स का मानना था कि न्याय एक उत्तम समाज की ज़रूरी शर्त है, समाज में न्याय के साथ-साथ कई और नैतिक गुणों की भी अहमियत होती है जिसमें समानता और पारस्परिक लाभ पर ज़ोर दिया जाना चाहिए।

सामान्य दुनियाँ में हमारी सारी लड़ाइयां इस वजह से है कि, हमे पता है कि हम कहाँ फायदे में हैं और कहाँ नुकसान में हैं, कुछ क्षण के लिए हम यह भूल जाएं कि, किस चीज से हमें फायदा या नुकसान होगा और निष्पक्ष होकर सोचें तो, हम खुद इस निर्णय पर पहुँच जाएंगे की कई मामले में हम अवैध फायदा उठा रहे हैं और कई मामले में हमें अवैध रूप से नुकसान हो रहा है।

आधुनिक शास्त्रीय काल के दार्शनिक रेने डेकार्ट ने “मेथड ऑफ डाउट” यानी संदेह की पद्धति का इस्तेमाल किया था, उन्होंने अपने दर्शन में संदेह की पद्धति अपनाई थी। डेकार्ट ने कहा था कि सभी चीज़ों पर संदेह किया जा सकता है, लेकिन संदेह करने की प्रक्रिया पर संदेह नहीं किया जा सकता।

डेकार्ट ने सभी विचारों, विश्वासों, सोच, और मामलों पर संदेह किया, उन्होंने दिखाया कि किसी भी ज्ञान के लिए उनके आधार या तर्क झूठे भी हो सकते हैं, डेकार्ट ने कहा था कि संवेदी अनुभव अक्सर ग़लत होता है, इसलिए इस पर संदेह किया जाना चाहिए, किसी निर्णय पर पहुँचने के लिए केवल तथ्यों को, तर्कों को देखना चाहिए, मेरा नुकसान, मेरा फायदा को भूलकर, मेरा परिवार क्या मानता है, मेरा समाज क्या बोलता है इसको नजरअंदाज कर, किसी विषय के ऐसे तथ्य, ऐसे तर्क जो अकाट्य हो, पूरे रिसर्च करने के बाबजूद जिस तर्क का हम विरोध नही कर पा रहे हैं। ऐसे तर्क को मान लेने चाहिए। मेरा धर्म, मेरा समाज, मेरा परिवार, मेरा नैतिक मूल्य क्या कहता है इसको तत्काल स्थगित कर किसी विषय को समझने के लिए तटस्थता आवश्यक है। जब दो पक्ष अपने लाभ-हानि को भुलकर, निष्पक्ष, तटस्थ और वस्तुनिष्ठ होकर किसी विषय पर तर्कपूर्ण संवाद स्थापित करेंगे तभी आरक्षण, अल्पसंख्यक के अधिकार, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, धर्मवाद जैसे जटिल मुद्दे पर संवाद कर पाएंगे और तभी तलवारें जो ऐसे मुद्दों को लेकर दो पक्षों के बीच तनी हुई है, म्यान में जा सकेगी।

आरक्षण का शाब्दिक अर्थ

“आरक्षण” ‘आ’ और ‘रक्षण’ दो शब्दों से मिलकर बना है। यहाँ ‘आ’ उपसर्ग है, जबकि ‘रक्षण’ के पहले ‘आ’ उपसर्ग लग जाने से किसी वस्तु के पहले से रक्षित हो जाने का अर्थ निकलता है, जबकि इसका अर्थ होता है रोके रखना, रोकना या अलग रखने का कार्य, ऐसी चीज जो किसी खास या विशेष उद्देश्य के लिए अलग रखी गई हो।

आरक्षण क्या है?

कुछ विशेष वर्ग, समुदाय या वंचितों को समाज की मुख्यधारा में लाने के उपचार स्वरूप राज्य के द्वारा शिक्षा, नौकरी और राजनीति में विशेष अवसर दिया जाता है, आरक्षण कहलाता है।

आरक्षण किसे मिलता है?

आरक्षण जाती के आधार पर, दयनीय आर्थिक स्थिति के आधार पर, अल्पसंख्यक होने के आधार और लिंग के आधार पर संवैधानिक तरीके से मिलता है।

आरक्षण क्यों?
हमारे परिवार, समाज और देश के लिए आरक्षण क्यों जरूरी है इसे भी उदाहरण से समझते हैं –
उदाहरण : एक सामान्य परिवार है जिसमें दो बच्चे हैं जिसका नाम राम सौर श्याम है, उस परिवार के पास इतना ही संसाधन है की उन दोनों का मुश्किल से भरण-पोषण हो जाये। उस परिवार के पास दो ग्लास ही दूध लेने की क्षमता है। इस स्थिति में एक ग्लास दूध राम को और एक ग्लास दूध श्याम को मिलता है क्योंकि, इस परिवार के लोग संविधान के समानता और समता के नियम में विश्वास रखते हैं। अब एक दिन श्याम की तवियत अचनाक से खराब हो गई और वह काफी कमजोर हो गया, जब श्याम को डॉक्टर के पास ले जाया गया तो डॉक्टर ने कहा कि, श्याम की तवियत बहुत खराब है और इसे अधिक पोषण की आवश्यकता है, जबकि, राम पूरी तरह से तंदुरुस्त है। अब उस परिवार के पास दो विकल्प है पहला यह की वह संविधान के समानता के नियम का पालन करे और दोनों बच्चे को एक-एक ग्लास दूध दे या फिर नैतिकता के आधार पर जबतक श्याम पूरी तरह स्वस्थ न हो जाये, राम का हिसा भी दूध श्याम को दे ताकें श्याम दो-दो ग्लास दूध पीकर जल्दी स्वस्थ हो जाये और जब कुछ दिनों के बाद श्याम पूरी तरह से स्वस्थ हो जाये तो फिर राम और श्याम को पुनः एक एक ग्लास दूध मिलना शुर हो जाय। अगर आपके परिवार में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाये, तो आप संविधान के समानता के नियम का पालन करेंगे या नैतिकता के आधार पर उस कमजोर बच्चे को विशेष सुविधा मोहैया कराएंगे? मुझे कोई शंका नही की आपमें से अधिकतर लोग नैतिकता की तरफ जाएंगे क्योंकि परिवार त्याग और बलिदान के सिद्धान्त पर टिका हुआ होता है।

आपके परिवार में कोई वंचित, पीड़ित या कमजोर भाई-बहन है, उनकी मदद के लिए हम आगे आते हैं, एक ही परिवार में दो बच्चे हैं और संयोग से उसमें से एक, जिसपर परिस्थितियों के अनुसार अधिक खर्च हुआ वो आगे निकल गया और जिसपर कम खर्च हुआ वह पीछे रह गया अब उस आगे निकले हुए बच्चे की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है वो लगातार इस बात का ध्यान रखे की उसका पीछे छूट गया भाई या बहन की वह देखभाल करे। उस बड़े भाई के अंदर यह भाव हमेसा रहता है को उसका भाई भी आगे बढ़े, जब हमलोग परिवार में इस सिद्धांत पर काम करते हैं तो यह सिद्धांत देश के लिए लागू क्यों नही कर पाते।

अब यहाँ भी बात वही हो गयी कि, जब बात अपने परिवार पर आती है तो लोग समानता को छोड़कर नैतिकता का सहारा लेते हैं। क्याकि यहाँ पीड़ित और वंचित आपका अपना है, यही सोच और अवधारणा हम देश के वंचित लोगों के साथ क्यों नही रख पाते हैं? सन 1970 में जन्में एक सुप्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक जार्ज विल्हेम फ्रेड्रिक हेगेल ने कहा था की हमारे मन में जो भाव अपने परिवार को लेकर आता है वही भाव अगर समाज और देश के लिए आये तो, सारी समस्या ही समाप्त हो जाएगी।

अब जरा “अवसर की समता” पर बात कर लेते हैं

“अवसर की समता” का आपके अनुसार क्या तात्पर्य है?
प्रकृति ने हम सबको एक जैसा नही बनाया है, कोई लंबा है कोई छोटा, कोई मोटा है कोई दुबला, कोई मजबूत है कोई कमजोर, कोई गोरा है कोई काला, कोई सुंदर है कोई कुरूप है। तो क्या किसी चयन प्रक्रिया में सभी के लिए अवसर समान होने चाहिए या अलग-अलग?

इसको भी एक उदाहरण से समझते हैं एक बॉस्केट बॉल का मैदान है जिसमें दो खिलाड़ी हैं एक खिलाड़ी 6 फिट 4 इंच का है और दूसरा 4 फ़ीट 4 इंच का है। बास्केटबॉल बॉल के बास्केट की ऊंचाई 10 फ़ीट है, अब देखिये जो खिलाड़ी 6 फिट 4 इंच का है उसको बास्केट छूने के लिए मात्र 5 फ़ीट 8 इंच ही चाहिए जबकि दूसरा खिलाड़ी जो 4 फ़ीट 4 इंच का है उसे बास्केट छूने के लिए 7 फ़ीट 8 इंच चाहिए। तो क्या इसे आप “अवसर की समता” कहेंगे? या आप चाहेंगे की 6 फ़ीट 4 इंच वाले खिलाड़ी के लिए बास्केट की ऊंचाई 2 फ़ीट अधिक और 4 फ़ीट 4 इंच वाले के लिए बास्केट की ऊँचाई 2 फ़ीट कम होनी चाहिए? अवसर की समता ही कारण है की कुश्ती के खेल में वजन के आधार पर कुश्ती होती है ताकि प्रतियोगिता न्यायपूर्ण हो।

उदाहरण 2 : जब आप अपने खेत में फसल उगाते हैं तो क्या हर पौधा एक जैसा विकास करता है या उनमें से कुछ कमजोर रह जाते हैं और आपको नही लगता कि कमजोर रह जाने में उस पौधे की कोई भूमिका नही होती है, बस प्रकृति की विडम्बना है की कुछ पौधे कमजोर रह जाते हैं, लेकिन उसका किसान उस पौधे को विशेष उपचार (Special treatment) देता है, ताकि वह पौधा भी अपने बाँकी सभी पौधे के साथ आगे बढ़ सके, अगर ऐसा नही किया गया तो वह कमजोर पौधा बड़े पौधे के बीच दबकर रह जाएगा, सूर्य की रौशनी उनतक नही पहुँच पाएगी, प्रकाश संश्लेषण नही होने से वह पौधा अपना भोजन नही बना पाएगा और एक दिन वह सुख जाएगा। हम अपने पौधे, अपने परिवार के साथ आरक्षण का सिद्धांत बड़े ही आराम से अपना लेते हैं लेकिन जब वही आरक्षण का सिद्धांत किसी अन्य के साथ लागू करने की बारी आती है तो हम उसे अयोग्य कह देते हैं।

क्या आरक्षण, समता और समानता के विरूद्ध है?

इसको भी एक उदाहरण से समझते हैं, मान लीजिए कि, दो छात्र आईएएस बनना चाहते हैं और दोनों छात्रों की परिवारिक पृष्ठभूमि अलग-अलग है। पहला छात्र एक मेट्रोपोलिटन सिटी में रहता है उसके माता-पिता पहले से आईएस हैं, उसकी प्रारंभिक पढ़ाई एक बेहतरीन इंग्लिश स्कूल में हुआ है, उसे दुनियाभर का गाइडेन्स मिला है, उसे उच्च स्तरीय टयूशन भी मिल रहा है, साथ ही लाखों रुपये की फीस वाली कोचिंग मिल रही है, अंग्रेजी उसका मुख्य भाषा है। उसने 20 वर्ष की उम्र में स्नातक पास कर ली है और 21 वर्ष की उम्र होते ही वह आईएएस का एग्जाम देगा इनके लिए एक साल तैयारी भी कर ली है।

अब दूसरे छात्र की पृष्ठभूमि का आकलन करते हैं ऐसा छात्र जो सुदूर गाँव में रहता है, उसके माता पिता अनपढ़ हैं। उसकी प्रारंभिक पढ़ाई सरकारी विद्यालय में हुआ है, उसे किसी तरह का बैकअप या गाइडेंस प्राप्त नही है। कोचिंग और टयूशन नही मिला है और उसकी बोलचाल की भाषा हिन्दी है। किसी तरह वह कॉलेज गया जहां स्नातक का सत्र भी देर से चल रहा है और वह 25 वर्ष की उम्र में स्नातक पास किया है।

अब आप हमें ये बताएं कि, क्या ये दोनों बच्चे सच में आईएएस के रेस में शामिल होने के लिए समान अर्हता रखते हैं? क्या आप मानेगे की इन दोनों का रेस एक ही बिन्दु से शुरू हो रहा है? या आप चाहेंगे कि, दोनों को अलग-अलग अवसर मिलने चाहिए? अगर गाँव वाले बच्चे को थोड़ी सुविधा (आरक्षण) मोहैया कराई जाए तो क्या यह समानता के विरुद्ध होगा?

अब आप कहेंगे आरक्षण की समय सीमा क्या होनी चाहिए?
दरअसल जबतक असमानता रहेगी आरक्षण खत्म होने वाला नही है, क्योंकि बात केवल एक श्याम,एक पौधे, एक खिलाड़ी, एक छात्र की नही है हमारे देश दुनियाँ में लाखों करोड़ों हैं जो कमजोर और वंचित हैं जिन्हें बचाने के लिए विशेष सुविधा मोहैया करना आवश्यक है।

भारतीय संविधान और आरक्षण

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में आरक्षण का प्रावधान है, यह प्रावधान सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए है। इसके अलावा, संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान शामिल है।
  • अनुच्छेद 16(4) के तहत, राज्य सरकारें अपने नागरिकों के पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी पदों पर आरक्षण दे सकती हैं।
  • अनुच्छेद 16(4A) के तहत, राज्य सरकारें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए पदोन्नति में आरक्षण दे सकती हैं।
  • अनुच्छेद 330 के तहत, लोकसभा में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण मिलता है।
  • 103वें संशोधन अधिनियम, 2019 के तहत, आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

आरक्षण से क्या मिलता है?

किसी भी सभ्य देश में उसके नागरिकों के बीच संसाधनों का समान वितरण उस देश के नागरिकों का संवैधानिक अधिकार होता है, किन्तु आरक्षण से कुछ विशेष वर्ग या समुदाय को उस संसाधन में से विशेष हिस्सा, आरक्षण के द्वारा उपचार के तौर पर मिलता है जिसमें शिक्षा, नौकरी और राजनीति में अवसर शामिल होते हैं। कुछ श्याम, कुछ कमजोर पौधे, 4 फिट 4 इंच के खिलाड़ी और गाँव के उस छात्र को अगर विशेष सुविधा नही दिए जाएँगे तो उनका मुख्यधारा में आ पाना लगभग नामुनकिन हो जाएगा, इसलिए हमारे देश के सर्वांगीण विकास हेतु, आरक्षण भी एक जरूरी समाजिक व्यवस्था है।

आपको यह लेख कैसा लगा आप अपना महत्वपूर्ण विचार दें, साथ ही हमें बताएं कि, आरक्षण की सीमा कितनी होनी चाहिए, प्रमोशन में आरक्षण क्यों दिया जाता है और प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण हो या ना हो?

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