शिक्षा व रोजगार : मनुष्य अन्य जीवधारियों से इसीलिए अलग है क्योंकि, वह न केवल अनुभव से ज्ञान अर्जित करता है अपितु उसे पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित भी करता है। जीवन की तरह ज्ञान भी सतत् आगे बढ़ता रहता है। मनुष्य अपने अतिअल्प जीवन से प्राप्त ज्ञान को अनवरत चलायमान रहने वाले अक्षय कोष में संग्रहित कर अन्ततः विदा लेता है ताकि, उनकी आने वाली पीढ़ी उस ज्ञान का लाभ प्राप्त कर अपना जीवन और अधिक सुलभ, सरल और खुशहाल बना सके, ज्ञान को हस्तान्तरित करने का एक स्थायी और पुरातन उपादान है अक्षय कोष, जिन्हें आसान शब्दों में हम स्कूल, विद्यालय या विश्वविद्यालय की संज्ञा भी दे सकते है।
आधुनिक बिहार में, राजगीर के पास स्थित नालंदा विश्वविद्यालय जो कभी भारत का गौरव, यूनेस्को का विश्व धरोहर स्थल और भारत ही नही विश्व शिक्षा का सिरमौर हुआ करता था, 12 वी शताब्दी में एक सनकी मिजाज तुर्क आक्रमणकारी के द्वारा नष्ट कर दिया गया। आइए पता करते हैं कि, आप अपने इस गौरवशाली अतीत के बारे में कितना कुछ जानते हैं।
नालंदा विश्वविद्यालय तक्षशिला के बाद (तक्षशिला, नालंदा से अधिक प्राचीन है, जिसका इतिहास छठी शताब्दी ईसा पूर्व का माना जाता है, जबकि नालंदा की स्थापना 5वीं शताब्दी ईस्वी में हुई थी) भारत का सबसे प्राचीनतम और विश्व का एक प्रसिद्ध शिक्षा केंद्र था, इस विश्वविद्यालय को गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम के द्वारा 427 ई० में स्थापित किया गया था, बाद में हर्षवर्धन और पाल शासकों ने भी इसे संरक्षण दिया, यह बौद्ध व हिन्दू धर्म के अध्ययन का एक प्रमुख केंद्र था जिसने पूरे एशिया के छात्रों को अपनी ओर आकर्षित किया। विश्वविद्यालय में सैकड़ों कमरे, दर्जनों बड़े कक्ष और एक विशाल पुस्तकालय था, जिसमें लगभग 90 लाख (गौरतलब : आज के प्रिंटिंग तकनीक की मदद से 90 लाख किताबें छापना आसान हो सकता है, लेकिन उस काल में ये किताबें हाथ से लिखी जाती थी।) से अधिक पुस्तकें थीं। नालंदा विश्वविद्यालय न केवल बौद्ध अध्ययन और दर्शन के लिए बल्कि चिकित्सा और गणित के लिए भी प्रसिद्ध था।
नालंदा क्षेत्र वहाँ स्थित है जहाँ एक समय में मगध का तत्कालीन साम्राज्य था। इसकी राजधानी राजगृह, आधुनिक काल में राजगीर है, जो नये नालंदा विश्वविद्यालय का स्थल है। विश्व में शिक्षण के प्राचीनतम ज्ञात केंद्र, पुराने नालंदा ने अपने उद्भव के बाद 5 वीं शताब्दी ईस्वी से लगभग 12 वीं सदी तक निर्बाध रूप से अपनी विशिष्ट स्थिति में अवस्थित रहा।
प्रारंभ में बौद्ध शिक्षा, दर्शनशास्त्र, रसायनशास्त्र, शरीर रचना विज्ञान और गणित के एक केंद्र के रूप में स्थापित किये गये इस आवासीय विश्वविद्यालय ने मध्य और पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों जैसे चीन, कोरिया, तिब्बत, मंगोलिया और टर्की के कई प्रसिद्ध विद्वानों और छात्रों को आकर्षित किया। ह्वेन्सांग {ह्वेन्सांग जो नालन्दा विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की थी, उन्होंने अपनी यात्रा वृत्तांत में नालंदा की भव्यता के बारे में लिखा है, ह्वेनसांग की याद में नालंदा में एक हॉल (ह्वेनसांग मेमोरियल हॉल बनाया गया जो नालंदा के खंडहरों से करीब 1.3 किलोमीटर दूर है, इस हॉल का निर्माण 1984 में पूरा हुआ था।) बना है जिसे आज भी आप देख सकते हैं। ह्वेनसांग ने 637 और 642 ईस्वी के बीच नालंदा का दौरा किया था, उन्होंने नालंदा विश्विद्यालय में लगभग दो साल बिताए, 74 ग्रंथों का स्वयं अनुवाद किया, अध्ययन के दौरान योगाचार, व्याकरण, तर्कशास्त्र, और संस्कृत के पाठ्यक्रमों में भी भाग लिया व महाविहार में व्याख्यान भी दिया अंत में ह्वेनसांग ने 520 बक्सों में 20 घोड़ों पर लादकर 657 संस्कृत ग्रंथों और 150 अवशेषों के साथ चीन लौट गए।} और इत्सिंग नालंदा विश्वविद्यालय में पधारने वाले कुछ प्रतिष्ठित विद्वान थे। नालंदा का समग्र शिक्षण प्रतिरूप, जो जीवंत वाद-विवाद व संवाद पर आधारित था, ने व्यक्तिगत, मानव जीवन और वृहत जीवमंडल के बीच एक संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया। इसने विभिन्न प्रकार के ज्ञान को भी आत्मसात किया। विश्वविद्यालय में प्रवेश हेतु एक कठिन प्रवेश परीक्षा होती थी। अपने चरम काल में, नालंदा विश्वविद्यालय में 10,000 छात्रों तथा 2000 शिक्षकों को समायोजित करने की व्यवस्था थी।
इस व्यापक ज्ञान के आधार पर प्राचीन विश्वविद्यालय के तीन भवन पुस्तकालय हेतु पूर्णतः समर्पित थे। यह पुस्तकालय, जो धर्म गूँज के रूप में जाना जाता था, अपने समय में विश्व में बौद्ध और हिंदू साहित्य का सबसे बड़ा संग्रह था। अपनी शैक्षिक उत्कृष्टता के अतिरिक्त, नालंदा विश्वविद्यालय शिल्पकला का एक अदभुत उदहारण था, जोकि उस स्थल की पुरातात्विक खुदाई से स्पष्ट होता है।
इतने बड़े विश्विद्यालय का पतन का सर्वकालिक और तात्कालिक कारण अन्तराष्ट्रीय धार्मिक प्रतिस्पर्धा थी। 12वीं सदी में नालंदा का पतन, उच्च शिक्षा की सबसे लंबे समय तक जीवित रहने वाली संस्था के अंत के रूप में चिह्नित है, जोकि वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय था और अपने समय में ज्ञान उत्पत्ति और प्रसार में शीर्ष और अद्वितीय स्थान रखता था, जो उस समय के तुर्क-अफ़गान आक्रमणकारियों के लिए धार्मिक और राजनीतिक वर्चस्व पर आधात जैसा प्रतीत हो रहा था। इसके पतन का कारण 12वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी के नेतृत्व में तुर्क-अफ़गान सेना द्वारा किया गया विनाशकारी आक्रमण था, जिसने विश्वविद्यालय को जलाकर नष्ट कर दिया था। इतिहासकार बताते हैं कि खिलजी का प्राथमिक उद्देश्य भारतीय सांस्कृतिक और धार्मिक धरोहरों को मिटाना और अपने धार्मिक और राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाना था, आक्रमण के दौरान विश्वविद्यालय की पुस्तकालय, जिसे धर्म गूँज कहा जाता था, को भी आग के हवाले कर दिया गया था और कहा जाता है कि पुस्तकालय की आग 3 महीनों तक जलती रही थी। नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध धर्म और शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था और इसके विनाश ने भारत में बौद्ध धर्म के पतन में भी योगदान दिया।
12वीं शताब्दी में सन 1193 ई० में बख्तियार खिलजी के द्वारा आग लगा देने से यह ऐतिहासिक विश्वविद्यालय नष्ट हो गया, लेकिन क्या आप जानते हैं की आखिर बख्तियार ने इस महान विश्विद्यालय को नष्ट क्यों किया। इसके पीछे एक अजीबोगरीब कहानी है
दरअसल नालन्दा विश्विद्यालय ही था जिसने बख्तियारपुर खिलजी को जीवन दान दिया, लेकिन बख्तियार खिलजी ने नालन्दा विश्विद्यालय, बौद्ध धर्म और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले उसने उसे नष्ट करने का कुत्सित मार्ग चुना और नालन्दा विश्विद्यालय को जलाकर नष्ट ही नही किया बल्कि, हजारों धर्माचार्य व बौद्ध भिक्षुओं को मार डाले।
कहानी यह है कि, एक बार मोहम्मद गोरी का तुर्क सैन्य कमांडर बख्तियार खिलजी गंभीर रूप से बीमार पड़ गया, सारे तुर्क हकीम हार गए परंतु बीमारी का पता तक नहीं चल पाया। खिलजी दिन-ब-दिन कमजोर पड़ता गया और उसने बिस्तर पकड़ लिया। उसे लगा कि अब उसके आखिरी दिन आ गए हैं। एक दिन उससे मिलने आए, एक बुज़ुर्ग ने सलाह दी कि दूर भारत के मगध साम्राज्य में अवस्थित नालंदा महाविद्यालय के एक वैद्य, शीलभद्र को एक बार दिखा लें, वे आपको ठीक कर देंगे। खिलजी तैयार नहीं हुआ। उसने कहा कि मैं किसी काफ़िर के हाथ की दवा नहीं ले सकता हूँ, चाहे मैं मर ही क्यों न जाऊं! मगर बीबी-बच्चों की जिद के आगे झुक गया। वेदाचार्य शीलभद्र भारत से तुर्की आए। खिलजी ने उनसे कहा कि दूर से ही देखो, मुझे छूना मत, क्योंकि तुम काफिर हो और दवा मैं लूंगा नहीं। शीलभद्र जी ने उसका चेहरा देखा, नजर से ही शरीर का मुआयना किया, बलगम से भरे बर्तन को देखे, सांसों के उतार चढ़ाव का अध्ययन किया और बाहर चले गए। फिर वापस लौटे और पूछा कि तुम कुरान पढ़ते हो? खिलजी ने कहा दिन रात पढ़ता हूँ, शीलभद्र ने खिलजी को एक कुरान भेंट किया और कहा कि आज से आप इसे पढ़ें और शीलभद्र वापस भारत लौट आए। उधर दूसरे दिन से ही खिलजी की तबीयत ठीक होने लगी और एक हफ्ते में वह भला चंगा हो गया। ठीक होने के बाद खिलजी भारत के आयुर्वेद और आयुर्विज्ञान से हतप्रभ था, वह सोचने लगा की भारत में ऐसी कौन सी तकनीक है जो किसी को बिना छूए, बिना कोई दवा दिए भी रोगमुक्त कर सकती है। बख्तियार खिलजी नालन्दा आकर शीलभद्र से अपने ठीक होने के रहस्य के बारे में पूछा। शीलभद्र ने जो जबाब दिया उससे खिलजी और भी अचंभित हो गया, शीलभद्र ने कहा दरअसल कुरान के पन्नों पर मैने दवा लगा दी थी, पन्नो को पलटने के लिए आप अपनी जीभ के लार का इस्तेमाल करते थे, इसलिए दवा पन्ने से उंगली और उंगलियों से होकर जीभ तक पहुंचाने के लिए हमने कुरान का सहारा लिया, क्योंकि आपने कहा था कि, अगर तुम मुझे बिना छुए और बिना कुछ खिलाये ही चंगा कर सकते हो तो करो। खिलजी शीलभद्र के अनोखे तरीके, बुद्धिमत्ता और वैदिक निपुणता से अचंभित था मगर उससे भी ज्यादा ईर्ष्या और जलन से मरा जा रहा था कि आखिर एक काफिर हम जैसे ईमानवालों से ज्यादा काबिल कैसे हो गया?
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बख्तियार खिलजी ने नालन्दा विश्विद्यालय, बौद्ध धर्म, शीलभद्र और आयुर्वेद का एहसान मानने के बदले उसने 1193 में मोहम्मद गोरी को सन्देश देकर सेना मंगवाया सेना के साथ खिलजी जब नालन्दा पहूँचा तो शिक्षक और छात्र उसके स्वागत में बाहर आए, क्योंकि उन्हें लगा कि वह कृतज्ञता व्यक्त करने आया है। खिलजी ने उन्हें देखा, मुस्कुराया और तलवार से भिक्षु श्रेष्ठ की गर्दन काट दी (क्योंकि वह पूरी तैयारी के साथ आया था)। फिर हजारों छात्र और शिक्षक गाजर मूली की तरह काट डाले गए। इतिहासकार कहते हैं कि खिलजी चिल्ला चिल्ला कर कह रहा था कि, तुम काफिरों की हिम्मत कैसे हुई इतनी पुस्तकें और पांडुलिपियां इकट्ठा करने की?
पूरे नालंदा को तहस नहस कर जब वह लौटा तो रास्ते में विक्रम शिला विश्वविद्यालय को भी जलाते हुए लौटा। मगध क्षेत्र के बाहर बंगाल में वह रूक गया और वहां खिलजी साम्राज्य की स्थापना की। जब वह लद्दाख क्षेत्र होते हुए तिब्बत पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था तभी एक रात उसके एक कमांडर ने उसकी निद्रा में हत्या कर दी। आज भी बंगाल के पश्चिमी दिनाजपुर में उसकी कब्र है जहां उसे दफनाया गया। ऐसा माना जाता है कि उसी दुर्दांत हत्यारे के नाम पर बिहार में बख्तियारपुर नामक जगह है जहां रेलवे जंक्शन भी है जहां से नालंदा की ट्रेन जाती है।
किन्तु हमें नमन करना चाहिए उस नालन्दा के ज्ञानपुष्प बौद्ध भिक्षु शीलभद्र के शीलता को जिन्होंने तुर्की तक जाकर अपने दुत्कारे जाने के बाबजूद भी एक तुर्की की प्राण रक्षा अपने चिकित्सकीय ज्ञान व बुद्धि कौशल से की।
2006 में भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुनरुद्धार का प्रस्ताव रखा था, 2007 में बिहार विधान सभा ने एक नए विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए एक विधेयक पारित किया था, जो वर्तमान में नव नालंदा महाविहार के रूप में जाना जाता है। अवसर मिले तो एकबार अवश्य भृमण करें।
रेफरेंसेस: 1. द वंडर दैट वाज इंडिया – एएल बाशम 2. ह्वेनसांग के आर्टिकल 3. द लाइफ ऑफ ह्वेन-सांग – शामन ह्वुई ली 4. चेजिंग द मॉन्क शैडो – मिशी सरन 5. तबकात-ए-नासिरी – मिन्हाज-ए-सिराज 6. पग सम जोन जैंग – सुम्पा खान पो 7. बायोग्राफी ऑफ धर्मस्वामिन 8. हिस्ट्री ऑफ बुद्धिस्म इन इंडिया – तारानाथ 9. द एंटीक्वेरियन रिमेंस इन बिहार – डीआर पाटिल 10. द अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया – विंसेंट स्मिथ 11. यूनिवर्सिटी ऑफ नालंदा – एचडी संकलिया 12. डिक्लाइन ऑफ नालंदा – प्रो. आनंद सिंह 13. नालंदा: अ ग्लोरियस पास्ट – प्रो. आनंद सिंह